Tuesday, May 27, 2014

A superb post by my friend vinay kakkar

दादी माँ बनाती थी रोटी
��पहली गाय की ,
��आखरी कुत्ते की
��एक बामणी दादी की
��एक मेथरानी बाई
हर सुबह सांड आ जाता था
दरवाज़े पर गुड़ की डली के लिए
कबूतर का चुग्गा
��किडियो  का आटा
ग्यारस, अमावस, पूर्णिमा का सीधा
डाकौत का तेल
काली कुतिया के ब्याने पर तेल गुड़ का सीरा

सब कुछ निकल आता था
उस ��घर से ,
जिसमें विलासिता के नाम पर एक टेबल पंखा था...

आज �� सामान से भरे �� घर में
कुछ भी नहीं निकलता
सिवाय लड़ने की कर्कश �� आवाजों के.......
....
मकान चाहे कच्चे थे
लेकिन रिश्ते सारे सच्चे थे...
चारपाई पर बैठते थे
पास पास रहते थे...
सोफे और डबल बेड आ गए
दूरियां हमारी बढा गए....
छतों पर अब न सोते हैं
बात बतंगड अब न होते हैं..
आंगन में वृक्ष थे
सांझे सुख दुख थे...
दरवाजा खुला रहता था
राही भी आ बैठता था...
कौवे भी कांवते थे
मेहमान आते जाते थे...
इक साइकिल ही पास था
फिर भी मेल जोल था...
रिश्ते निभाते थे
रूठते मनाते थे...
पैसा चाहे कम था
माथे पे ना गम था...
मकान चाहे कच्चे थे
रिश्ते सारे सच्चे थे...
अब शायद कुछ पा लिया है
पर लगता है कि बहुत कुछ गंवा दिया

Comment :

विनय कक्कड़ जी की पोस्ट "दादी माँ बनाती थी रोटी" के संदर्भ में उनको हमारे और सभी ग्रुप साथियों की तरफ से शुभेच्छा।
ये पोस्ट जिसको समझ आई होगी वो गद गद हो जायेगा। शहर में जन्मे और पले बढे साथियों को शायद समझने में दिक्कत हो।  परन्तु ये केवल / करीब 20 साल पहले की हकीकत है जो कम से कम मैंने तो जरुर देखी और जी है।
अगर आप सब गौर करे तो इसी
बात की ओर स्पिएल्बेर्ग की अंग्रेजी  फिल्म "अवतार" इशारा करती है।
अगर किसी ने नहीं देखि हो तो जरूर देंखे।
जीवन में साजों सामान जुटाने की आपाधापी में हमसे क्या छुट गया यह हमें समझ ही नहीं आता और जब एहसास होता है तो वो लुप्त हो चुकी होती है।
परन्तु याद रक्खे कि ये तरक्की का मार्ग हमें अँधेरी राह पे ले जा रहा है। अब पडोसी तो दूर  अपने सगे भाइयों बहनों  और बच्चो से हम कितने जुड़ पाते है या उनके सरोकारों में कितना शामिल है, इसका जवाब मांगने पर ज्यादातर लोग शर्मिंदा ही होंगे।
वो पहले जमाने वाली बात अब कहाँ? ना चबूतरा है ना चौबारा है। बिना मोबाइल, लैपटॉप, इन्टरनेट  और टेक्नोलॉजी के हम कितने जुड़े हुए थे  कितने पास थे। कितने नेचर के करीब थे। मेरी नानीजी गाय से दूध निकालते हुए उससे बातें करती थी। सभी जानवर भी बातों का जवाब देते थे। इनके बछड़ो के लिए पर्याप्त दूध थनों में छोड़ा जाता था। आज इंजेक्शन लगा कर दूध की आखरी बूंद तक निचोड़ ली जाती है। मुझे याद है हम तब लस्सी फ्री में लाया करते थे पड़ोस के घरों से। पैसों का ज्यादा चलन नहीं था बल्कि अनाज देकर भी हम बाजार से सामान ले आते थे। मुझे याद है की हमारी एक आवाज पर पूरा गाँव इक्कट्ठा हो जाता था।

क्या हम में से कोई बता सकता है की उसने कबूतरो और चिड़ियाओ को आखिरी बार कब दाने डाले?
हम में से तो अधिकतर तो शायद ये भी ना पता हो कि मोबाइल टावर्स की घातक रेडिएशन से ये पंछी अब लुप्त होने की कगार पर है।
ईश्वर हमें सदबुद्धी दे।

विनय कक्कड़ जी पुनः धन्यवाद।